रंग का त्योहार होली हमारे देश में परंपराओं के साथ फाल्गुन के महीने में मनाया जाता है। इस बार एक मार्च को होली का रंग उड़ेगा। ग्वालियर-चंबल अंचल में होली का एक अलग ही रुप देखने को मिलता है। आओ आपको बताते है कहां किसे मनती थी होली
एक माह पहले गाड़ते थे डांड़ा
शिवपुरी जिले में होली से एक माह पूर्व पूर्णिमा के दिन गांव के उस स्थान पर होली का डांड़ा गाड़ दिया जाता था, जहां होली जलाई जाती थी। यहां गांव भर के युवक एक माह तक लकडिय़ां एकत्रित करके बड़ी होली बनाते थे। जिसका दहन होली की पूर्णिमा की रा
त किया जाता था। यहां घरों में नई बहुएं गाय के गोबर को हाथ तक नहीं लगातीं, जबकि होली पर गोबर की गुलईयां बनाकर होली जलाने की खास परंपरा है।
झंडा उतारने पर पड़ते हैं डंडे
श्योपुर जिले में जाट व बंजारा बाहुल्य गांवों में इस दिन डंडे मारने का चलन है वहीं कुछ गांव ऐसे भी हैं, जहां धूलंडी पर डंडों की मार के बीच झंडा उतारने की प्रतियोगिता होती है। हालांकि धीरे-धीरे कर अब यह प्रतियोगिता सिमटती जा रही है और अब दो तीन गांव ही ऐसे रह गए हैं, जहां आज भी ऐसा होता है। इनमें मालीपुरा व आवदा क्षेत्र विशेष हैं। इस प्रतियोगिता के तहत इन गांवों में एक बल्ली पर झण्डा बांध दिया जाता है, जिसे गांव के युवाओं द्वारा बल्ली पर चढ़कर उतारने का प्रयास किया जाता है। इस दौरान वहां जमा गांव की गोरियां इन युवाओं
की टोलियों पर ल_ बरसाती हैं
खाई जाती थीं गकईंया
दतिया जिले में
होलिका दहन होने के बाद होली की आग पर गकईंया (छोटी एवं मोटी रोटी) बनाई जाती थी। पूरा परिवार होलिका दहन के दिन इन्हीं गकईयों का सेवन किया करता था। वर्तमान में यह परंपरा पूरी तरह से विलुप्त हो चुकी है। आधुनिक बने मकानों में अब न तो होलिका दहन किया जाता है और न ही
बरबुले बनाएं जाते है।
पहली होली मंदिरों पर
भिंड में ठाकुरजी यानी भगवान श्रीकृष्ण, की प्रतिमा की ओर होली की धूल उछाले बिना तब होली शुरू नहीं होती थी। तब पूरे गांव के लोग सुबह ही उस स्थान पर एकत्रित होते थे, जहां रात को होली जली होती थी। गांवों में उन दिनों एक ही होली जलाई जाती थी। होली वाले स्थान से फाग गाते हुरियारे हाथ की मुट्ïिठयों में धूल भरकर चलते थे। वे पहुंचते
थे गांव के मंदिर पर, जहां भगवान के संग होली खेलने के बाद वे एक-दूसरे को धूल से नहला देते थे।
जुहार कराती
थीं भौजी :
देवरों को तब होली पर गांव की भौजी जुहार करती थीं। जुहार से तात्पर्य रात को की जाने वाली मिठाईयों भरी वह खातिरदारी, जिसमें किसी-किसी गुजिया में रंग-रूह भी भरा होता था। धोखा था ये, जिसमें खाने वालों के मुंह लाल हो जाते थे।
पुरुष भी गाते थे होरी
मुरैना जिले में होली पर पुरुष भी फाग और ख्याल गाते थे। इस दौरान खूब भांग छानी जाती थी। पुरुषों द्वारा गाए जाने वाले यह ख्याल अधिकतर भगवान शंकर पर आधारित होते थे। मसलन 'मैं तो तोईये वरूगीं भोला लट धारी। तेरे काजें मैने करी रे तपस्या। बन में करो हैं मेने तप भारी। मैं तोईऐ बरोंगी भोला लट धारीÓ और 'धन-धन भोला नाथ, तुम्हारी कौड़ी नहीं खजाने में। तीन लोक बस्ती में बसाए दऐ, आप बसे वीराने मेंÓ
मुरैना में शब्द होली
मथुरा की फूल होरी और बृज की लठ्ठï मार होरी आज जितनी प्रसिद्ध है। उससे कहीं ज्यादा प्रसिद्ध मुरैना की शब्द होरी हुआ करती थी। शब्द होरी की वह आत्मीयता अब बहुत कम ही सुनने और महसूस करने को मिलती है। मुरैना जिला ८४ कोस में फैले बृज क्षेत्र का ही हिस्सा है। कहा जाता है, कि मुरैना गांव स्थित दाऊजी के मंदिर तक भगवान कृष्ण अपनी गायों को चराने के लिए लाते थे। यही कारण रहा कि मुरैना की होरी में बृज की होरी की झलक दिखाई देती है। कहा जाता है कि भगवान कृष्ण बृज के जिन लोगों के साथ बरसाने में होरी खेलने के लिए जाया करते थे उनमें मुरैना के किशोर एवं युवा ग्वाल-बाल भी अच्छी खासी तादाद में होते थे।
होरी का त्योहार हो और बृज की होरी की चर्चा न हो ऐसा तो हो ही नहीं सकता। बृज की होरी में मुरैना की शब्द होरी तो कतई नहीं भुलाई जा सकती। बृज क्षेत्र मुरैना के लोग जब होरी खेलने के लिए बरसाने जाते थे, तो यहां की महिलाएं बचे हुए लोगों को होरी के त्योहार पर जमकर परेशान करतीं थी। इसके लिए वे घूंघट की ओट से फेंके जाने वाले शब्दों के रंगों का इस्तेमाल करती थीं। इस होरी की सबसे बड़ी विशेषता यह थी, कि यहां होरी में रंगों का जितना महत्व होता था उतना ही महत्व होरी गीत, रसिया और कृष्ण पर आधारित चुटकियों का भी होता था। महिलाएं इन छंदों में जिन शब्दों का प्रयोग करती थीं, वे आम तौर पर अगर किसी से कह दिए जाएं तो कोई भी बुरा मान जाए। लेकिन होरी वाले दिन लोग इन शब्दों को सुनकर क्रोधित होनेे की बजाय इनका पूरा आनंद लेते थे। महिलाएं पुरुषों को उलाहना देते हुए कहती थीं कि 'तेने बनवाओ बमूर को द्वारो, बापे ठोको विदेशी तारो, रसिया मैं नाय मानूंगीÓ। अपने देवरों के साथ होली खेलते हुए भाभी अक्सर जो गीत गाती थीं, वे भगवान कृष्ण की शैतानियों पर आधारित होते थे। मसलन 'यशोदा, तेरो लाल बिगर गयो बारे सेें। देखिकें सूनों घरि घुसियावै, पाछे ते सग ग्वाल बुलावै। यातो भाग जात पिछवारे सें, तेरो लाल बिगर गयो बारे सेंÓ।