रविवार, 7 मार्च 2010

काश सीता और द्रोपदी के समय मनाया जाता महिला दिवस

कल 8 मार्च को पूरे विश्व में महिला दिवस मनाया जाएगा। इस अवसर पर संसद में महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण दिए जाने के लिए महिला विधेयक पेश किए जाने की तैयारी चल रही है। यदि यह विधेयक संसद में बहुमत के साथ पारित हो जाता है तो देश के राजनीतिक पटल पर महिलाओं को एक बड़ा मंच मिल जाएगा। ऐसी धारणा लोगों की है।
आज देश के सर्वोच्च पद(राष्ट्रपति) पर एक महिला काबिज है और कई प्रदेशों की कमान भी महिलाओं के हाथ में है। फिर महिलाओं को वह स्वतंत्रता नहीं मिली है जिसकी वह हकदार है। एक जमाना था जब इस देश में सीता और द्रोपदी जैसी महिलाओं ने वह सब झेला था जो आज की नारी को झेलना पड़ रहा है। काश उस समय भी महिला दिवस मनाया जाता तो शायद सीता और द्रोपदी के साथ अन्याय नहीं होता। और वे दोनों महिलाएं भी अपने हक के लिए संसद (दरबार )में अपनी आवाज उठा कर दोषियों को दंड दिलाने का प्रयास करतीं।

रविवार, 28 फ़रवरी 2010

ये दीवानों की होली रे



रंग का त्योहार होली हमारे देश में परंपराओं के साथ फाल्गुन के महीने में मनाया जाता है। इस बार एक मार्च को होली का रंग उड़ेगा। ग्वालियर-चंबल अंचल में होली का एक अलग ही रुप देखने को मिलता है। आओ आपको बताते है कहां किसे मनती थी होली
एक माह पहले गाड़ते थे डांड़ा
शिवपुरी जिले में होली से एक माह पूर्व पूर्णिमा के दिन गांव के उस स्थान पर होली का डांड़ा गाड़ दिया जाता था, जहां होली जलाई जाती थी। यहां गांव भर के युवक एक माह तक लकडिय़ां एकत्रित करके बड़ी होली बनाते थे। जिसका दहन होली की पूर्णिमा की रा किया जाता था। यहां घरों में नई बहुएं गाय के गोबर को हाथ तक नहीं लगातीं, जबकि होली पर गोबर की गुलईयां बनाकर होली जलाने की खास परंपरा है।
झंडा उतारने पर पड़ते हैं डंडे
श्योपुर जिले में जाट व बंजारा बाहुल्य गांवों में इस दिन डंडे मारने का चलन है वहीं कुछ गांव ऐसे भी हैं, जहां धूलंडी पर डंडों की मार के बीच झंडा उतारने की प्रतियोगिता होती है। हालांकि धीरे-धीरे कर अब यह प्रतियोगिता सिमटती जा रही है और अब दो तीन गांव ही ऐसे रह गए हैं, जहां आज भी ऐसा होता है। इनमें मालीपुरा व आवदा क्षेत्र विशेष हैं। इस प्रतियोगिता के तहत इन गांवों में एक बल्ली पर झण्डा बांध दिया जाता है, जिसे गांव के युवाओं द्वारा बल्ली पर चढ़कर उतारने का प्रयास किया जाता है। इस दौरान वहां जमा गांव की गोरियां इन युवाओं की टोलियों पर ल_ बरसाती हैं
खाई जाती थीं गकईंया
दतिया जिले में होलिका दहन होने के बाद होली की आग पर गकईंया (छोटी एवं मोटी रोटी) बनाई जाती थी। पूरा परिवार होलिका दहन के दिन इन्हीं गकईयों का सेवन किया करता था। वर्तमान में यह परंपरा पूरी तरह से विलुप्त हो चुकी है। आधुनिक बने मकानों में अब न तो होलिका दहन किया जाता है और न ही बरबुले बनाएं जाते है।
पहली होली मंदिरों पर
भिंड में ठाकुरजी यानी भगवान श्रीकृष्ण, की प्रतिमा की ओर होली की धूल उछाले बिना तब होली शुरू नहीं होती थी। तब पूरे गांव के लोग सुबह ही उस स्थान पर एकत्रित होते थे, जहां रात को होली जली होती थी। गांवों में उन दिनों एक ही होली जलाई जाती थी। होली वाले स्थान से फाग गाते हुरियारे हाथ की मुट्ïिठयों में धूल भरकर चलते थे। वे पहुंचते थे गांव के मंदिर पर, जहां भगवान के संग होली खेलने के बाद वे एक-दूसरे को धूल से नहला देते थे।
जुहार कराती थीं भौजी :
देवरों को तब होली पर गांव की भौजी जुहार करती थीं। जुहार से तात्पर्य रात को की जाने वाली मिठाईयों भरी वह खातिरदारी, जिसमें किसी-किसी गुजिया में रंग-रूह भी भरा होता था। धोखा था ये, जिसमें खाने वालों के मुंह लाल हो जाते थे।
पुरुष भी गाते थे होरी
मुरैना जिले में होली पर पुरुष भी फाग और ख्याल गाते थे। इस दौरान खूब भांग छानी जाती थी। पुरुषों द्वारा गाए जाने वाले यह ख्याल अधिकतर भगवान शंकर पर आधारित होते थे। मसलन 'मैं तो तोईये वरूगीं भोला लट धारी। तेरे काजें मैने करी रे तपस्या। बन में करो हैं मेने तप भारी। मैं तोईऐ बरोंगी भोला लट धारीÓ और 'धन-धन भोला नाथ, तुम्हारी कौड़ी नहीं खजाने में। तीन लोक बस्ती में बसाए दऐ, आप बसे वीराने मेंÓ
मुरैना में शब्द होली
मथुरा की फूल होरी और बृज की लठ्ठï मार होरी आज जितनी प्रसिद्ध है। उससे कहीं ज्यादा प्रसिद्ध मुरैना की शब्द होरी हुआ करती थी। शब्द होरी की वह आत्मीयता अब बहुत कम ही सुनने और महसूस करने को मिलती है। मुरैना जिला ८४ कोस में फैले बृज क्षेत्र का ही हिस्सा है। कहा जाता है, कि मुरैना गांव स्थित दाऊजी के मंदिर तक भगवान कृष्ण अपनी गायों को चराने के लिए लाते थे। यही कारण रहा कि मुरैना की होरी में बृज की होरी की झलक दिखाई देती है। कहा जाता है कि भगवान कृष्ण बृज के जिन लोगों के साथ बरसाने में होरी खेलने के लिए जाया करते थे उनमें मुरैना के किशोर एवं युवा ग्वाल-बाल भी अच्छी खासी तादाद में होते थे।
होरी का त्योहार हो और बृज की होरी की चर्चा न हो ऐसा तो हो ही नहीं सकता। बृज की होरी में मुरैना की शब्द होरी तो कतई नहीं भुलाई जा सकती। बृज क्षेत्र मुरैना के लोग जब होरी खेलने के लिए बरसाने जाते थे, तो यहां की महिलाएं बचे हुए लोगों को होरी के त्योहार पर जमकर परेशान करतीं थी। इसके लिए वे घूंघट की ओट से फेंके जाने वाले शब्दों के रंगों का इस्तेमाल करती थीं। इस होरी की सबसे बड़ी विशेषता यह थी, कि यहां होरी में रंगों का जितना महत्व होता था उतना ही महत्व होरी गीत, रसिया और कृष्ण पर आधारित चुटकियों का भी होता था। महिलाएं इन छंदों में जिन शब्दों का प्रयोग करती थीं, वे आम तौर पर अगर किसी से कह दिए जाएं तो कोई भी बुरा मान जाए। लेकिन होरी वाले दिन लोग इन शब्दों को सुनकर क्रोधित होनेे की बजाय इनका पूरा आनंद लेते थे। महिलाएं पुरुषों को उलाहना देते हुए कहती थीं कि 'तेने बनवाओ बमूर को द्वारो, बापे ठोको विदेशी तारो, रसिया मैं नाय मानूंगीÓ। अपने देवरों के साथ होली खेलते हुए भाभी अक्सर जो गीत गाती थीं, वे भगवान कृष्ण की शैतानियों पर आधारित होते थे। मसलन 'यशोदा, तेरो लाल बिगर गयो बारे सेें। देखिकें सूनों घरि घुसियावै, पाछे ते सग ग्वाल बुलावै। यातो भाग जात पिछवारे सें, तेरो लाल बिगर गयो बारे सेंÓ।

शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2010

टाटा की राह चले बॉलीबुड

सस्ती लोक प्रियता पाने के लिए शिवसेना प्रमुख या उनके उत्तराधिकारी हमेशा उल्टे सीधे बयान देकर सुर्खियों में बने रहते है। शिवसेना कभी पाकिस्तान क्रिकेट टीम का विरोध कर खेलप्रेमियों को आघात पहुंचाती है तो कभी बॉलीबुड में रिलीज होने वाली फिल्म को निशाना बनाते रहे हैं, लेकिन अब तो शिवसेना प्रमुख बालठाकरे और उनके पुत्र उद्धव ठाकरे के साथ उनके भतीजे राज ठाकरे जो महाराष्ट्र नव निर्माण सेना के प्रमुख हैं ने सारी हदें तोड़ कर महाराष्ट्र को मराठी के नाम पर पूरे देश में बदनाम कर दिया है। यहां कभी बिहारियों के साथ मारपीट होती है तो कभी उत्तर भारतीय के साथ। अब बालीबुड को चाहिए कि वह रतनटाटा की राह पर चलकर शिवसेना और महाराष्ट्र सरकार को सबक सिखाएं।
अभी हाल ही की बात करें तो शिवसेना में कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी को निशाने पर लेकर मुम्बई में न घुसने की चेतावनी दे डाली थी। लेकिन राहुल गांधी ने मुम्बई आकर शिवसेना के मिथक को तोड़ दिया। और उन्होंने मुम्बई में लोकल टे्रन का सफर कर यह दिखा दिया कि मुम्बई किसी जागीर नहीं है।
राहुल मुम्बई आए और चले गए पर शिवसैनिक कुछ न कर सके। तो उन्होंने फिल्म अभिनेता शाहरूख खान को निशाने पर ले लिया और उनकी फिल्म माय नेम इज खान को मुम्बई में रिलीज नहीं करने की चेतावनी फिल्म जगत को दे डाली। महाराष्ट्र सरकार को शाहरूख की फिल्म को रिलीज कराने के लिए शुक्रवार को काफी पुलिसबल तैनात करना पड़ा।
बालीबुड ने हीे मुम्बई को दुनियाभर में पहचान दिलाई है यदि बालीबुड मुम्बई से पलायन कर जाएगा, तो मुम्बई की क्या स्थिति होगी सभी जानते है।शिवसेना द्वारा आए दिन बालीबुड के लोगों को धमकियां दी जाती है जिससे शिवसेना सुर्खियों में आ जाती है।
अब बालीबुड को चाहिए कि नैनो कार के निर्माता रतन टाटा की राह पर चलकर वह शिवसेना और महाराष्ट्र सरकार को यह चेतावनी दे कि अगर शिवसेना ने बालीबुड (फिल्म अभिनेता, निर्माता, निर्देशक व सिनेमाघर संचालकों ) को ज्यादा परेशान किया तो बालीबुड मुम्बई से पलायन कर देश के किसी भी प्रदेश में अपनी फिल्म दुनिया बसा लेगा। फिर शिवसेना मुम्बई में चलाती रहे अपना मराठी कार्ड।
संदर्भ: रतन टाटा ने ममता बनर्जी की धमकी से तंग आकर अपनी लोकप्रिय कार नैनो का कारखाना पश्चिम बंगाल से गुजरात शिफ्ट कर दिया था। जिससे ममता बनर्जी की छवि देशभर में खराब हुई थी।

मंगलवार, 9 फ़रवरी 2010

ये वायरस कैसे हटेंगे

हम आईटी के युग में जी रहे हंै जिसमेें कम्प्यूटर का बड़ा ही महत्व है अब हर उम्र का व्यक्ति कंप्यूटर पर काम कर अपने आप को अपडेट कर रहा है।
एक समय था जब कंप्यूटर को लोग हाथ लगाने से भी डरते थे, तब जो कंप्यूटर के जानकार हुआ करते थे वह कहते है इसे छूना नहीं इसमें वायरस आ जाएगा।
भई यह वायरस क्या है पहले हम नहीं जानते थे, हम तो यह समझते थे कि वायरस कोई कीड़ा होगा, जो कंप्यूटर में घुसकर उसे खराब कर देता है। जैसे-जैसे हमें कंप्यूटर पर काम करने के अवसर मिला वायरस के बारे में भी थोड़ी बहुत जानकारी हो गई। आईटी कंपनियों ने वायरस से निपटने के लिए कई एंटी वायरस ईजाद कर दिए, जिन्हें कंप्यूटर में लोड कर दिया जाता है। वह समय-समय पर कंप्यूटर में आने वाले वायरस को हटा देते है और कंप्यूटर खराब होने से बच जाता है।
अब हम बात करेंगे उन वायरसों की जो सरकारी और गैरसरकारी तंत्र में इस तरह घुस गए हैं जिन्हें हटाने के अभी तक कोई एंटी वायरस इजाद नहीं किया जा सका है। सरकारी महकमे में पदस्थ अधिकारी हो या कर्मचारी अपने आप को सरकार का दामाद समझता है, उसका उद्देश्य रहता है कि बस पैसा बनाओ और लोगों को घुमाओ।
...और कर भी क्या सकते हैं काम तो आता ही नहीं है तो करेंगे कैसे ? बस ईमानदारी को चोला पहनकर करोड़ों की संपति बना लेते हैं। जब चोरी पकड़ में आती है तो मुंह छिपाते फिर है।
एक समय था जब प्राइवेट सेक्टर इन वायरसों से अछूता था, जो व्यक्ति प्राइवेट सेक्टर में काम करता था, उससे पूरा आउटपुट लिया जाता था। इसके बावजूद उसे उसकी मेहनत के अनुसार वेतन भी नहीं मिल पा रहा था। लेकिन अब प्राइवेट सेक्टरों का भी सरकारीकरण होता जा रहा है। ,
हम केवल नेशनल और मल्टीनेशनल कंपनियों की बात कर रहे है। जिन कंपनी डायरेक्टरों ने अपने संस्थान अपने भरोसेमंद लोगों की देखरेख में छोड़ रखे है,लेकिन कुछ अपवादों को छोड़कर उन भरोसेमंद लोगों की अनदेखी के चलते इन सेक्टरों में भी ऐसे लोग (वायरस) खूब चांदी काट रहे है जिन्हें सिफारिश के बल पर बड़े-बड़े पैकेज पर वह नौकरियां मिल गई हंै,जिनके वह काबिल (वायरस) नहीं है। ऐसे लोगों की मॉनीटरिंग करने के लिए भी कोई मापदंड नहीं बनाए जाते है। जिससे उन पर काम करने (समय सीमा में) का दबाव बनाया जा सके या उनके खिलाफ कार्रवाई की जा सके।

शुक्रवार, 15 जनवरी 2010