गुरुवार, 24 दिसंबर 2009

खाना, खजाना और जनाना

एक जमाना था जब खाना, खजाना और जनाना को पर्दे में रखा जाता था,लेकिन जैसे-जैसे लोगों पर पाश्चात संस्कृति हावी हुई पर्दे में रहने वाली यह तीनों चीजों की खुलकर नुमाइस होने लगी है।
खाने की नुमाइस देखनी हो तो किस करोड़पति द्वारा आयोजित भोज में शरीक हो जाईए। वहां जाकर आपको देखने का मिलेगा की अन्न की किस तरह अपमान किया जाता है। एक समय था जब व्यक्ति भोजन करने से पहले अन्न देवता को प्रणाम करता था और भोजन समाप्त होने पर थाली को चरण स्पर्श करने के बाद ही उठाता था, लेकिन अब क्या होता है सभी जानते है इसलिए हमें कुछ कहने की जरुरत नहीं है?
अब बात करते है खजाने की हमारे देश हो सोने की चिडिय़ां कहा जाता था, उस जमाने के इंसान मेहनत मजदूरी करके जो भी कमाता था उसे सिर से लगाकर उसका कुछ हिस्सा भोग के रुप से भगवान को अर्पण करने के बाद ही खर्च करता था। उसका इस बात पर जोर रहता था कि उसके द्वारा जोड़ा गया था धन वक्त वेवक्त जरुरत पडऩे पर काम आएगा। इस कंप्यूटर युग में धन की खुलकर नुमाइश हो रही है। व्यक्ति जरुरत से ज्यादा खर्च करता है और कर्जदार बन जाता है। बने भी क्यों नहीं बैंकें भी बुला-बुलाकर कर कर्जदार बना रही है। स्थिति यह कि वह जिस मकान में रहता है वह लोन पर, वह जिस वाहन पर चलता है वह लोन पर,उसकी जेब में जो क्रेडिट कार्ड होता है वह दैनिक जरुरत की वस्तुएं उधारी में दिलाने के काम आता है।
अब बात की जाए जनाना (महिलाओं) की कभी पर्दे में रहने वाली महिलाएं आज राजनीति में खुलकर हिस्सेदारी कर रही है यह बात है महिला-पुरुष में भेदभाव नहीं होना चाहिए। लेकिन राजनीति कैसा क्षेत्र है यह सभी जानते है। कुछ महिलाओं का यदि छोड़ दिया जाएं तो महिलाओं के लिए राजनीति की डगर काफी कठिन है। लोकसभा, विधानसभा के चुनावों को नजरअंदाज करते हुए यदि हम नगर निकाय व जनपद पंचायत के चुनावों पर नजर डाले तो यहां राजनीति में उतरी महिलाओं की स्थिति काफी दयनीय है। घुंघट की ओट में महिलाओं को चुनाव लड़ा दिया था। कभी गांव की चौपाल पर न आने वाली महिलाएं या उनके परिजन राजनीति का प्रसाद चखने के लिए उन्हें दर-दर भटकने पर मजबूर कर देते है। कुछ को सत्ता का सुख मिल भी जाता है लेकिन चुनाव के बाद क्या होता है सभी जानते है जनप्रतिनिधि बनी महिला फिर चौके-चूल्हे में व्यस्त हो जाती है और सत्ता का मजा लेते है उनके पति...

1 टिप्पणी:

लोकेन्द्र सिंह ने कहा…

आपने जो भी बात कही वह सब सही है। इसमें कोई दो राय नहीं की हम पतन की ओर अग्रसर हैं पाश्चात्य संस्कृति का अंधानुकरण करके। भारत में अन्न को देवता माना जाता है और पैसा के उपयोग दिखाने के लिए नहीं होना चाहिए। भगवान ने वह तुम्हें व्यर्थ में खर्चने नहीं दिया है उसका सदुपयोग करें। गरीबों की मदद करें पर करता कौन है। कुछ हैं जो ऐसा करते हैं वे सचमुच बधाई के पात्र हैं। बस महिलाओं वाली बात पर मैं आपसे थोड़ा सहमत नहीं हूं, उसे बराबर का अधिकार बहुत पहले था। महारानीयां बराबर से राजदरबार में बैठकर राजनीति में भाग लेतीं थी। लेकिन, दुख और पीड़ा का बस एक ही बात है कि इस समय पुरुष नाम का प्राणी अपने लाभ के लिए नारी का उपयोग कर रहा है। उसे भी स्वछंद नीले आसमान में बाहें फैला कर सांस लेने और आसमान को समेटने की आजादी होना चाहिए। बाकी लेख बहुत अच्छा है।